कबीरदास के अनमोल दोहे - 8

प्रेम प्याला जो पिया, सीस दक्षिणा देय।

लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥1॥


जिस घट प्रीति न प्रेम रस, उनी रसना नहि राम।

ते नर इन संसार में, उपजि भये बिन काम॥2॥


पिंजरा प्रेम प्रगासया, जागि जाति अनन्त।

संशय छूटा भय मिटा, मिला पियारा कंत॥3॥


कबीर कहा गरबियो, चाँम पलेटे हाड़।

हैबर ऊपरि छत्र सिरि, ते भी देबा गाड़ ॥4॥


प्रेमी ढूंढत मैं फिरूं, प्रेमी मिला न कोए।

प्रेमी से प्रेमी मिले, विष से अमृत होए॥5॥


कबीर कहा गरबियो, ऊँचे देखि अवास।

काल्हि परौ भुई लोटना, ऊपरि जमिहै घास॥6॥


गुरू गोबिन्द दोऊं खड़े, काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरू आपनो, गोबिन्द दियो मिलाय॥7॥


कबिरा हरि के रूठते, गुरू के शरणे जाय।

कहत कबीर गुरू रूठते, हरी न होत सहाय॥8॥


ऐसी बानी बोलीए, मन का आपा खोय।

औरन को सीतल करे, आपहूँ सीतल होय॥9॥


प्रेम बिना धीरज नहीं, विरह बिना वैराग।

सतगुरू बिन जावे नहीं, मन मनसा का दाग॥10॥


कबीरदास » मुख्यपृष्ठ » अन्य पृष्ठ: [1]    [2]    [3]    [4]    [5]    [6]    [7]    [8]    [9]    [10]    [11]    [12]    [13]    [14]    [15]    [16]    [17]    [18]    [19]    [20]    [21]    [22]    [23]    [24]    [25]    [26]    [27]    [28]    [29]    [30]    [31]    [32]    [33]