दादूदयाल के अनमोल दोहे

पढ़ि-पढ़ि थके पंडिता, किनहु न पाया पर।

काथि-कथि थके मुनि जना, ‘दादू’ नांई अंधार॥1॥


रज्जब तैं गज्जब किया, सिर पर बांधा मौर।

आया था हरी भजन कुं, करे नरक की ठौर॥2॥


काल कनक अरु कामिनी, परिहरि इन का संग।

‘दादू’ सब जग जलि मुवा, ज्यौं दीपक जोति पतंग॥3॥


सतगुरु संगति नीपजै, साहिब सींचनहार।

प्राण वृक्ष पीवै सदा, दादू फलै अपार॥4॥


कोइ नृप के तन कोढ हो, हंस दरश के काज।

सदाव्रत पक्षिन दियो, सुन आयो खगराज॥5॥


दया धर्म का रूंखड़ा, सत सौं बधता जाइ।

संतोष सौं फूलै फलै, दादू अमर फल खाइ॥6॥


दादू छाजन भोजन सहज में, संइयां देइ सो लेय।

तातैं अधिका और कुछ, सो तूं कांइ करेय॥7॥


जब मन लागे राम सौं, अनत काय को जाइ।

दादू पाणी-लूण ज्यों, ऐसे रही समाइ॥8॥


केते पारिख पच मुए, कीमती कही न जाइ।

दादू सब हैरान हैं, गूंगे का गुड खाइ॥9॥


दादू देख दयाल को, सकल रहा भरपूर।

रोम-रोम में रमि रह्या, तू जनि जाने दूर॥10॥


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