मतिराम के अनमोल दोहे

कोटी-कोटी मतिराम कहि, जतन करो सब आय।

फाटे मन अरु दूध मैं, नेह नहीं ठहराय॥1॥


कत सजनी है अनमनी, अँसुवा भरति ससंक।

बड़े भाग नँदलाल सों, झूँठहु लगत कलंक॥2॥


जगै जोन्ह की जोति यों, छपै जलद की छाँह।

मनौ छीरनिधि की उठै, लहरि छहरि छिति माँह॥3॥


चित्रहु में सखि जाहि लखि, होत अनंत अनंद।

सपने हूँ कबहूँ सखी, मोहिं मिलिहै ब्रजचंद॥4॥


सपनेहुँ मन भाँवतो, करत नहीं अपराध।

मेरे मनहू में सखी, रही मान की साध॥5॥


तुम सों कीजै मान क्यों, ब्रज नायक मनरंज।

बात कहत यों बालके, भरि आए दृग कंज॥6॥


सुखद साधुजन को सदा, गजमुख दानि उदार।

सेवनीय सब जगत कौ, जग मां बाप कुमार॥7॥


अंग ललित सित रंग पट, अंगराग अवतंस।

हंस बाहिनी कीजियै, बाहन मेरो हंस॥8॥


मदरस मत्त मिलिन्द गन, गान मुदित गन-नाथ।

सुमिरत कवि मतिराम के, सिद्धि-रिद्धि-निधि हाथ॥9॥


विषयनि तें निरबेद बर, ज्ञान जोग ब्रत नेम।

विफल जानियों ए बिना, प्रभु पग पंकज प्रेम॥10॥


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