केशवदास के अनमोल दोहे

छन्द विरोधी पंगु सुन, नगन जो भूषण हीन।

मृतक कहावै अर्थ बिनु, केशव सुनहु प्रवीन॥1॥


भाषा बोलि न जानही जिलके कुल के दास।

भाषा कवि भो मन्दमति, तेहि कुल केशवदास॥2॥


जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त।

भूषण बिनु न विराजई, कविती वनिता मित्त॥3॥


कौन के सुत बालि के वह, कौन बालि न जानिए।

कांख चांपि तुम्हें जो, सात सागर न्हात बखनिए॥4॥


अजहूं रघुनाथ प्रताप की बात, तुम्हें दसकंठ न जानि परी।

तेलनि तूलनि पूंछ जरी न, जरी जरी लंक दराइ जरी॥5॥


उत्तम पद कवि गंग के कविता को बलवीर।

केशव अर्थ गँभीर को सूर तीन गुन धीर॥6॥


केशव केसनि असि करी, बैरिहु जस न कराहिं।

चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं॥7॥


गेंद करेउं मैं खैल की, हर-गिरि केशोदास।

सीस चढाए आपने, कमल समान सहास॥8॥


विषमय यह गोदावरी, अमृतन को फल देति।

केशव जीवन हार को, दुख अशेष हर लेति॥9॥


रिपुहिं मारि संहारिदल यम ते लेहुं छुडाय।

लवहिं मिलै हों देखिहों माता तेरे पाय॥10॥


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