मलिक मोहम्मद जायसी के अनमोल दोहे

कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गयउ सुखाइ।

सूखि बेलि पुनि पलुहै, जो पिय सींचै आइ॥1॥


तिन्ह संतति उपराजा, भांतिहि भांति कुलीन।

हिंदू तुरुक दुबो भये, अपने- अपने दीन॥2॥


गगन हुता नहिं महि दुती, हुते चंद्र नहिं सूर।

ऐसइ अंधकूप महं, स्पत मुहम्मद नूर॥3॥


लागीं सब मिलि हेरै बूडि बूडि एक साथ।

कोइ उठी मोती लेइ, काहू घोंघा हाथ॥4॥


जिया जंतु जत सिरजा, सब महँ पवन सो पूरि।

पवनहि पवन जाइ मिलि, आगि,बाउ,जल धूरि॥5॥


अगिनि, पानि औ माटी, पवन फूल कर मूल ।

उहई सिरजन कीन्हा, मारि कीन्ह अस्थूल॥6॥


माटी कर तन भाँडा, माटी महँ नव खंड।

जे केहु खेलै माटि कहँ, माटी प्रेम प्रचंड॥7॥


कहौं सो ज्ञान ककहरा, सब आखर महँ लेखि।

पंडित पढ अखरावटी, टूटा जोरेहु देखी॥8॥


सरग न,धरति न खंभमय, बरम्ह न बिसुन महेस।

बजर-बीज बीरौ अस, ओहि रंग, न भेस॥9॥


रकत माँसु भरि, पूरि हिय, पाँच भूत कै संग।

प्रेम-देस तेहि ऊपर बाज रूप औ रंग ॥10॥


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