काम अंधकारी जगत, लखै न रूप कुरूप।
हाथ लिए डोलत फिरै, कामिनि छरी अनूप॥1॥
तातैं कामिनि एक ही, कहन सुनन को भेद।
राचैं पागै प्रेम रस, मेटै मन के खेद॥2॥
अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षना हीन।
अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन॥3॥
दम्पति नीकी देव कवि, वरणत विविध विलास।
आठ जाम चौंसठेि घरी, पूरण प्रेम प्रकास॥4॥
सुभ सत्रह से छियालिस, चढ़त सोरहीं वर्ष।
कढ़ी देव मुख देवता, भावविलास सहर्ष॥5॥