‘दरिया’ संगत साध की, सहजै पलटै बंस।
कीट छांड मुक्ता चुगै, होय काग ते हंस॥1॥
सकल ग्रंथ का अर्थ है, सकल बात की बात।
दरिया सुमिरन राम का, कर लीजै दिन रात॥2॥
अनुभौ झूठी थोथरी, निर्गुण सच्चा नाम।
परम जोत परचे भई, तो धुआं से क्या काम॥3॥
बाहर से उज्जवल दसा, भीतर मैला अंग।
ता सेती कौवा भला, तन मन एक ही रंग॥4॥
वाका चेज ऊजला, वाका खाज निषेद।
जन दरिया कैसै बने, हंस बगुल के भेद॥5॥
गिरह माँहि धंधा घना, भेस माँहि हलकान।
जन दरिया कैसे भजूँ, पूरन ब्रह्म निदान॥6॥
जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता है राम।
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम॥7॥
सतगुरु दाता मुक्ति का, दरिया प्रेमदयाल।
किरपा कर चरनों लिया, मेट्या सकल जंजाल॥8॥
दरिया काया कारवी मौसर है दिन चारि।
जब लग सांस शरीर में तब लग राम संभारि॥9॥
दरिया त्रिकुटी महल में, भई उदासी मोय।
जहाँ सुख है तहं दुख सही, रवि जहं रजनी होय॥10॥