दादू जैसा गुरु मिले, शिष्य रज्जब सा जाण।
एक शब्द मै उधड़ गया रही नहीं खैंचा ताण॥1॥
चाह जगत की दास है, हरि अपना न करै।
चरनदास यों कहत हैं, व्याधा नाहि टरै॥2॥
काहू से नहि राखिये, काहू विधि की चाह।
परम संतोषी हूजिये, रहिये बेपरवाह॥3॥
संयम काको कहत ह हैं, कहौ गुरू शुकदेव।
सो सबही समुझाइये, ताको पावै भेव॥4॥
योग अष्टांग बुझाइहैं, भिन्न सब अंग।
पहिले संयम सीखिये, जाते होय न भंग॥5॥
सतगुरू से नहिं सकुचिये, एहो चरणहि दास।
जो अभिलाषा मन विषे, खोलि कहौ अब तास॥6॥
दिन दिन बढ़ता जायगा, तुम किरपा के नीर।
जब लगमाली ना मिला, तबलग हुता अधीर॥7॥
तुम दर्शन दुरलभ महा, भये जु मोको आज।
चरण लगो आपा दियो, भये जु पूरण काज॥8॥
इक अभिलाषा और है, कहि न सकूं सकुचाय।
हिये उठै मुख आयकरि, फिरि उलटी ही जाय॥9॥
अरू समुझाये योगही, बहु भांति बहु अंग।
उरधरेता ही कही, जीतन बिद अनंग॥10॥