मुबारक अली बिलग्रामी के अनमोल दोहे

चिबुक कूप, रसरी अलक, तिल सु चरस, दृग बैल।

बारी बैस सिंगार की, सींचत मनमथ छैल॥1॥


अलक डोर मुख छबि नदी, बेसरि बंसी लाई।

दै चारा मुकतानि को, मो चित चली फँदाइ॥2॥


चिबुक कूप में मन परयो, छबि जल तृषा विचारि।

कढ़ति मुबारक ताहि हिय, अलक डोरि सी डारि.॥3॥


परी मुबारक तिय बदन, अलक लोप अति होय।

मनो चन्द की गोद में,रही निसा सी सोय॥4॥


हास सतो गुर रज अधर, तिल तम दुति चितरूप।

मेरे दृग जोगी भये, लये समाधि अनूप॥5॥


सब जग पेरत तिलन को, थक्यो चित्त यह हेरि।

तव कपोल को एक तिल, सब जग डारयो पेरि॥6॥


बेनी तिरबेनी बनी, तहँ बन माघ नहाय।

इक तिल के आहार तैं, सब दिन रैन बिहाय॥7॥


मोहन काजर काम को, काम दियो तिल तोहि।

जब जब ऍंखियन में परै, मोंहि तेल मन मोहि॥8॥


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