देस काल करता करम, बचन विचार बिहीन।
ते सुरतरु तर दारिदी, सुरसरि तीर मलीन॥1॥
तुलसी उद्यम करम जुग, जब जेहि राम सुडीठि।
होइ सुफल सोइ ताहि, सब सनमुख प्रभु तन पीठि॥2॥
मिथ्या माहुर सज्जनहि, खलहि गरल सम सांच।
तुलसी छुअत पराई ज्यों, पारद पावन आंच॥3॥
जड़ चेतन गुन दोषमय, बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहि पथ, परिहरि बारि बीकार॥4॥
तुलसी देखत अनुभव, सुनत न समुझत नीच।
चपरि चपेटे देत नित,केस गहें कर मीच॥5॥
वचन वेष तेन सो बनै, सो बिगरे परिनाम।
तुलसी मन ते जो बने, बनी बनाई राम॥6॥
साधन सगुन ससधरम सगुन, सदेह सुभय महीप।
तुलसी जे अभिमान बिनु, ते त्रिभुवन के दीप॥7॥
होत प्रात मुनि वेष धरि, जै न राम वन जाहिं।
मोर मरन राउर अयस, नृप समुझहि मन माहिं॥8॥
राम नाम की लूट है, लूट सकै तो लूट।
अंतकाल पछतायेगा,जब प्राण जायेगो छूट॥9॥
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए॥10॥