श्रीमाननि के भौन में, भोग्य भामिनी और।
तिनहूँ को सुकियाह में, गनैं सुकवि सिरमौर॥1॥
कंस दलन पर दौर उत, इत राधा हित जोर।
चलि रहि सकै न स्याम चित, ऐंच लगी दुहुँ ओर॥॥2॥
तुलसी गंग दुवौ भए ।
सुकविन के सरदार॥3॥
जान्यौ चहै जु थोरे ही, रस कविता को बंस ।
तिन्ह रसिकन के हेतु यह, कान्हों रस सारंस॥4॥
केसरिया पट कनक-तन, कनका-भरन सिंगार।
गत केसर केदार में, जानी जाति न दार॥5॥
होत मृगादिक तें बडे बारन, बारन बृंद पहारन हेरे।
सिंदु में केते पहार परे, धरती में बिलोकिये सिंधु घनेरे॥6॥