नागरीदास के अनमोल दोहे

नागरीदास का जन्म संवत् १७५६ में हुआ था। इनका मूल नाम सांवतसिंह था जो कृष्णगढ़ (राजस्थान) के राजा थे। गृहकलह से इनका मन विरक्त हो गया, राज्य का शासन भार सा प्रतीत होने लगा। राजकाज छोड़कर नागरीदास वृन्दावन को चल दिए वहाँ ब्रजवासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया।

माया प्रबल प्रवाह में, मन कौ कछु न बसाय।

नदी कौसिकी मांहि ज्यो, तल सिर ऊपर पाय॥1॥


अधिक सयानय है जहां, सोई बुधि दुख खानि।

सर्वोपरि आनंदमय, प्रेम बाय चौरानि॥2॥


ब्रज में ह्वै ह्वै, कढ़त दिन, कितै दिए लै खोय।

अबकै अबकै, कहत ही, वह अबकै कब होय॥3॥


जहाँ कलह तहँ सुख नहीं,कलह सुखन को सूल।

सबै कलह इक राज में,राज कलह को मूल॥4॥


मैं अपने मन मूढ़ तें डरत रहत हौं हाय।

वृंदावन की ओर तें मति कबहूँ फिर जाय॥5॥


कहा भयो नृप हू भये, ढोवत जग बेगार।

लेत न सुख हरि भक्त को सकल सुखन को सार॥6॥


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