सहजोबाई के अनमोल दोहे

राम तजूं मैं गुरु न बिसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं।

हरि ने जन्म दियो जग माहीं, गुरु ने आवागमन छुड़ाही॥1॥


साहन कूं तो भय घना, सहजो निर्भय रंक।

कुंजर के पग बेड़ियां, चींटी फिरै निसंक॥2॥


बड़ा न जाने पाइहे, साहिब के दरबार।

द्वारे ही सूं लागिहै, सहजो मोटी मार॥3॥


प्रेम दीवाने जो भए, मन भयो चकनाचूर।

छकें रहैं घूमत रहैं, सहजो देखि हजूर॥4॥


जैसे संडसी लोह की, छिन पानी छिन आग।

ऐसे दुख सुख जगत के, सहजो तू मत पाग॥5॥


धन जोबन सुख संपदा, बाहर की सी छाहिं।

सहजो आखिर धूप है, चौरासी के माहीं॥6॥


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