भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अनमोल दोहे

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (९ सितंबर १८५०-७ जनवरी १८८५) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह

तरनि तनूजा तट तमाल, तरुवर बहु छाये।

झुके कूल सों जल, परसन हित मनहूँ सुहाये॥1॥


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल॥2॥


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार॥3॥


है इत लाल कपोल ब्रत, कठिन प्रेम की चाल।

मुख सों आह न भाखिहैं, निज सुख करो हलाल॥4॥


सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय।

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।॥5॥


भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात॥6॥


इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग॥7॥


अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।॥8॥


और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात॥9॥


तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय॥10॥


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