सुंदरदास के अनमोल दोहे

दौसा में जन्मे सुन्दरदास जी (1647-1746) के गुरु दादूदयाल जी थे। वे सिर्फ़ ६ वर्ष की आयु से ही दादू जी के साथ हो लिए।

मन ही बडौ कपूत है, मन ही बडौ सपूत।

सुंदर जौ मन थिर रहै, तो मन ही अवधूत॥1॥


गज अलि मीन पतंग मृग, इक-इक दोष बिनाश।

जाके तन पाँचौं बसै, ताकी कैसी आश॥2॥


सुंदर जाके बित्त है, सो वह राखैं गोइ।

कौडी फिरै उछालतो, जो टुट पूँज्यो होइ॥3॥


तेल जरै बाती जरै, दीपक जरै न कोइ।

दीपक जरताँ सब कहै, भारी अजरज होइ॥4॥


भारी अचरज होइ, जरै लकरी अरु घास।

अग्नि जरत सब कहैं, होइ यह बडा तमास॥5॥


मान लिये अंत:करण, जे इंद्रिन के भोग।

सुंदर न्यारो आतमा, लागो देह को रोग॥6॥


वैद्य हमारे रामजी, औषधि हू हरि नाम।

सुंदर यहै उपाय अब, सुमरिण आठों जाम॥7॥


सुंदर संशय को नहीं, बड़ी मुहच्छव येह।

आतम परमातम मिल्यो, रहो कि बिन्सो देह॥8॥


सात बरस सौ में घटैं इतने दिन की देह।

सुंदर आतम अमर है, देह खेइ की खेह॥9॥


बोलिए तौ तब जब बोलिबे की बुद्धि होय।

ना तौ मुख मौन गहि चुप होय रहिए॥10॥


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