रसनिधि के अनमोल दोहे

चतुर चितेरे तुव सबी, लिखत न हिय ठहराय।

कलम छुवत कर ऑंगुरी, कटी कटाछन जाय॥1॥


घट बढ इनमैं कौन है, तुहीं सामरे ऐन।

तुम गिरि लै नख पै धरयौ, इन गिरिधर लै नैन॥2॥


सरस रूप को भार पल, सहि न सकैं सुकुमार।

याही तैं ये पलक जनु, झुकि आवैं हर बार॥3॥


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