रैदास के अनमोल दोहे

ऐसा चाहूं राज मैं जहां, मिलै सबन को अन्न।

छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न॥1॥


रैदास कनक और कंगन माहि, जिमि अंतर कछु नाहिं।

तैसे ही अंतर नहीं, हिन्दुअन तुरकन माहि॥2॥


हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास॥3॥


कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।

तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै॥4॥


जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।

रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात॥5॥


कृष्ण करीम राम हरि राघव, जब लग एक न पेखा।

वेद कतेब कुरान पुरानन, सहज एक नहिं देखा॥6॥


हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा, सभी मह एक रक्त और मासा।

दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा॥7॥


वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।

सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की॥8॥


जात-पात के फेर मह, उरझि रहे सब लोग।

मानुषता को खात है, रैदास जात का रोग॥9॥


जब सभ करि दो हाथ पग, दोउ नैन दोउ कान।

रविदास पृथक कैसे भये, हिन्दु मुसलमान॥10॥


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