सो कुल धन्यप उमा, सुनु जगत पूज्यु सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहि नर उपज बिनीत॥1॥
आवत ही हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहां न जाइये, कंचन बरसे मेह॥2॥
नीच निचाई नही तजई, सज्जनहू के संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि, बिनु बिष भय न भुजंग॥3॥
तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार॥4॥
राम दूरि माया बढ़ती, घटती जानि मन माह।
भूरी होती रबि दूरि लखि, सिर पर पगतर छांह॥5॥
नाम राम को अंक है, सब साधन है सून।
अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दास गून॥6॥
तुलसी इस संसार में, सबसे मिलियो धाई।
न जाने केहि रूप में, नारायण मिल जाई॥7॥
तुलसी हरि अपमान तें, होई अकाज समाज।
राज करत रज मिली गए, सकल सकुल कुरूराज॥8॥
सुरनर मुनि कोऊ नहीं, जेहि न मोह माया प्रबल।
अस विचारी मन माहीं, भजिय महा मायापतिहीं॥9॥
ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर, कहहीं न दूसरी बात।
कौड़ी लागी लोभ बस, करहिं बिप्र गुर बात॥10॥