तुलसीदास के अनमोल दोहे - 8

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।

राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥1॥


निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥2॥


हऊं तो चाकर राम के पटौ लिखौ दरबार।

अब का तुलसी होहिंगे नर के मनसबदार॥3॥


सूर समर करनी करहिं, कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु, कायर कथहिं प्रतापु॥4॥


मो सम दीन न दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।

अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु बिषम भव भीर ॥॥5॥


सहज सुहृद गुर स्वामि सिख, जो न करइ सिर मानि।

सो पछिताइ अघाइ उर, अवसि होइ हित हानि॥6॥


तुलसी किए कुसंग थिति, होहिं दाहिने बाम ।

कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकर नाम॥7॥


गुरु संगति गुरु होइ सो, लघु संगति लघु नाम ।

चार पदारथ में गनै, नरक द्वारहू काम॥8॥


जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।

चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥9॥


बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥10॥


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