भलो भलाइहि पै लहइ, लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ, गरल सराहिअ मीचु॥1॥
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥2॥
संत सरल चित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा, राम चरन रति देहु॥3॥
का बरनऊँ छबि आज की, भले बिराजेउ नाथ।
तुलसी मस्तक जब नवे, धनुष बान लेउ हाथ॥4॥
खरिया खरी कपूर सब, उचित न पिय तिय त्याग।
कै खरिया मोहि मेलि कै, अचल करौ अनुराग॥5॥
देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥6॥
बधुन्ह समेत कुमार सब, रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि पुनि बंदत गुर चरन, देत असीस मुनीसु॥7॥
चले निसान बजाइ सुर, निज निज पुर सुख पाइ।
कहत परसपर राम जसु, प्रेम न हृदयँ समाइ॥8॥
कीन्ह सौच सब सहज, सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥9॥
पितु सुरपुर सिय रामु बन, करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित, कै आपन बड़ काजु॥10॥