तुलसीदास के अनमोल दोहे - 9

ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥1॥


कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।

प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥2॥


राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि।

राग न रोष न दोष दुःख सुलभ पदारथ चारि॥3॥


होई भले के अनभलो,होई दानी के सूम।

होई कपूत सपूत के ज्यों पावक मैं धूम॥4॥


मनि मानेक महेंगे किए सहेंगे तृण, जल, नाज।

तुलसी एते जानिए राम गरीब नेवाज॥5॥


ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर कहहीं न दूसरी बात।

कौड़ी लागी लोभ बस करहिं बिप्र गुर बात॥6॥


नाम राम को अंक है , सब साधन है सून।

अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दस गून॥7॥


तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।

अब तो दादुर बोलिहं हमें पूछिह कौन॥8॥


तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।

तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ॥9॥


तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।

तुलसी जिअत बिडम्बना, परिनामहु गत जान॥10॥


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