तुलसीदास के अनमोल दोहे - 7

कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहिं मोर।

कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥1॥


ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।

तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥2॥


प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।

दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥3॥


स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।

गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥4॥


सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।

लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥5॥


बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।

अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥6॥


उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥7॥


आपु आपु कहं सब भालो, अपने कहं कोइ कोइ।

तुलसी सब कहं जो भलो, सुजन सुजन सराहिअ सोइ॥8॥


बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास।

तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास।॥9॥


बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।

होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥10॥


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