तुलसीदास के अनमोल दोहे - 3

तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजे चहुँ ओर।

वशीकरण यह मंत्र है, तजिये वचन कठोर॥1॥


सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।

ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि॥2॥


राम बाम दिसि जानकी, लखन दाहिनी ओर।

ध्यान सकल कल्यानमय, सुरतरु तुलसी तोर॥3॥


तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।

भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बान॥4॥


देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया विवश बिचारे।

तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपनपो हारे॥5॥


कामिहि नारि पिआरि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय, लागहु मोहि राम ॥6॥


दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥7॥


काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान।

तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान॥8॥


राम नाम मनि दीप धुरूं जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहेर हूँ, जो चाहसि उजियार॥9॥


मसकहि करइ बिरंचि प्रभु, अजहि मसक ते हीन।

अस बिचारी तजि संसय, रामहि भजहि प्रबीन॥10॥


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