साध मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि की प्यास।
दादू संगत साधू की, अविगत पावै आस॥1॥
घीव दूध में रमि रहा, व्यापक सब ही ठौर।
दादू बकता बहुत है, माथि काढे ते और॥2॥
तिल-तिल का अपराधी तेरा, रती-रती का चोर।
पल-पल का मैं गुनही तेरा, बकसहु ऑंगुण मोर॥3॥
सतगुर कीया फेरि करि, मन का औरै रूप।
दादू पंचौं पलटि करि, कैसे भये अनूप॥4॥
माया विषै विकार थैं, मेरा मन भागै।
सोई कीजै साइयाँ, तूँ मीठा लागै॥5॥
बिरह जगावै दरद कौं, दरद जगावै जीव।
जीव जगावै सुरति कौं, तब पंच पुकारै पीव॥6॥
दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होई।
जब यहु आपा मरि गया, तब दूजा नहिं कोई॥7॥
सुन्य सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
दादू यह रस विलसिये, ऐसा अलख अभेव॥8॥
हिन्दू लागे देहुरा, मूसलमान मसीति।
हम लागे एक अलख सौं, सदा निरंतर प्रीति॥9॥
दादू दीया है भला, दिया करो सब कोय।
घर में धरा न पाइए, जो कर दिया न होय॥10॥