कबीरदास के अनमोल दोहे - 30

गुरु मुरति आगे खडी, दुतिया भेद कछु नाहि।

उन्ही कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटी जाहिं॥1॥


चारिहु जुग महात्म्य ते, कहि के जनायो नाथ।

मसि-कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ॥2॥


कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढें बन माँहि।

ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाँहि॥3॥


मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ।

साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥4॥


फाटै दीदै में फिरौं, नजरि न आवै कोइ।

जिहि घटि मेरा साँईयाँ, सो क्यूं छाना होइ॥5॥


जिनके नाम निशान है, तिन अटकावै कौन।

पुरुष खजाना पाइया, मिटि गया आवा गौन॥6॥


मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत।

मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत॥7॥


जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय।

मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय॥8॥


सबही भूमि बनारसी, सब निर गंगा होय।

ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय॥9॥


महमंता मन मारि ले, घट ही माहीं घेर।

जबही चालै पीठ दे, आँकुस दै दै फेर॥10॥


कबीरदास » मुख्यपृष्ठ » अन्य पृष्ठ: [1]    [2]    [3]    [4]    [5]    [6]    [7]    [8]    [9]    [10]    [11]    [12]    [13]    [14]    [15]    [16]    [17]    [18]    [19]    [20]    [21]    [22]    [23]    [24]    [25]    [26]    [27]    [28]    [29]    [30]    [31]    [32]    [33]