हरि गुन गाबै हरशि के, हृदय कपट ना जाय।
आपन तो समुझय नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय॥1॥
माखी गुड़ में गड़ि रहे, पंख रहे लिपटाय।
हाथ मले और सर धुनें, लालच बुरी बलाय॥2॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥3॥
काह भरोसा देह का, बिनसी जाय छिन मांहि।
सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नाहिं॥4॥
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहि।
धन का भूखा जो फिरऐ सो तो साधू नाहि॥5॥
शब्द बराबर धन नहीं, जो कोई जाने बोल।
हीरा तो दामो मिले, शब्द मोल न टोल॥6॥
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि॥7॥
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद॥8॥
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं॥9॥
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध॥10॥