कबीरदास के अनमोल दोहे - 10

जैसा भोजन खाइये वैसा ही मन होय।

जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी होय॥1॥


साईं से सब होत है, बन्दे से कछु नाहिं।

राई से परबत करे, परबत राई मांहि॥2॥


पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।

देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात॥3॥


संत पुरूष की आरती, संतों की ही देह।

लखा जो चाहे अलख को, उन्हीं में लखले देह॥4॥


हरी संगत सीतल भय, मिटी मोह की ताप।

निसिबासह सुख निधि लहा, आन के परगटे आप॥5॥


जात न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥6॥


तेरा साईं तुझ में बसे, ज्यों बचपन में बास।

कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर फिर ढूंढें घास॥7॥


कबिरा सो धन संचिये, जो आगे सू होए।

सीस चढ़ाए पार ले, जात न देखा कोए॥8॥


ते दिन गए अकारथी, संगत भई न संत।

प्रेम बिना पशु जीवना, शक्ति बिना भगवंत॥9॥


ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।

तेरा साईं तुझ में है, जाग सके तो जाग॥10॥


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