अजार धन अतीत का, गिरही करै आहार।
निशचय होयी दरीदरी, कहै कबीर विचार॥1॥
लाडू लावन लापसी ,पूजा चढ़े अपार।
पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार॥2॥
मुंड मुड़या हरि मिलें ,सब कोई लेई मुड़ाय।
बार -बार के मुड़ते ,भेंड़ा न बैकुण्ठ जाय॥3॥
एक बूँद एकै मल मुतर, एक चाम एक गुदा।
एक जोती से सब उतपना, कौन बामन कौन शूद ॥4॥
माटी का नाग बनाके, पुजे लोग लुगाय।
जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाय॥5॥
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥6॥
पानी कर बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिन छिप जायेगा, ज्यो तारा प्रभात ॥7॥
जिन खोज तिन पाइए , गहरे पानी पैठ।
मै बपुरा बूडन डरा , रहा किनारे बैठ ।।॥8॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ ख़जूर।
पंछी को छाया नही फल लागे अति दूर॥9॥
ऐसी बानी बोलिये, मन का आप खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय॥10॥