कबीरदास के अनमोल दोहे - 29

भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि आकाश।

भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश॥1॥


साधु संगत परिहरै, करै विषय को संग।

कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग॥2॥


अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार।

मेरा चोर मुझको मिलै सरबस डारु वार॥3॥


भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय।

भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जानै सब कोय॥4॥


भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनन्त।

ऊँच नीच बर अवतरै, होय सन्त का सन्त॥5॥


गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार।

आपा मैटैं हरि भजैं, तब पावैं दीदार॥6॥


मैं जाण्यूं पढ़िबो भलो, पढ़िबो से भलो जोग।

राम नाम सूं प्रीति करी, भल भल नीयौ लोग ॥7॥


पाँच पहर धंधे गया, तीन पहर गया सोय।

एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय॥8॥


रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।

हीरा जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय॥9॥


चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाय।

वैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय॥10॥


कबीरदास » मुख्यपृष्ठ » अन्य पृष्ठ: [1]    [2]    [3]    [4]    [5]    [6]    [7]    [8]    [9]    [10]    [11]    [12]    [13]    [14]    [15]    [16]    [17]    [18]    [19]    [20]    [21]    [22]    [23]    [24]    [25]    [26]    [27]    [28]    [29]    [30]    [31]    [32]    [33]