कबीरदास के अनमोल दोहे - 21

कबीर बेद हमारा भेद है, मैं मिलु बेदों से नांही।

जौन बेद से मैं मिलूं, वो बेद जानते नांही॥1॥


अगिन जो लागी नीर में, कंदो जलिया झारि।

उतर दक्खिन के पंडिता, रहे बिचारि-बिचारि॥2॥


काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम।

मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥3॥


पुरपाटण सुवस बसा, आनंद ठाँयें ठाँइ।

राम सनेही बाहिरा, उलजेड़ मेरे भाई ॥4॥


कंचन तजना सहज है, सहज तिरिया का नेह ।

मान बड़ाई ईरषा, दुर्लभ तजनी येह॥5॥


कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय।

सो कहता वह जानबे, जो नहीं गहता होय। ॥6॥


कबीर यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं।

सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥7॥


लाग लगन छूटे नहीं, जीभ चोंच जरि जाय।

मीठा कहाँ अंगार में, जाहिर चकोर चबाय॥8॥


के तन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह।

अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह॥9॥


कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।

काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥10॥


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