कबीरदास के अनमोल दोहे - 4

पढ़ना लिखना चातुरी, यह तो काम सहल।

काम दहन मन बसिकरन, गगन चढ़न मुस्कल॥1॥


तारा मंडल बैसि करि, चंद बडाई खाई।

उदय भय जब सूर का, स्यूं तारा छिपि जाई॥2॥


काइथि कागद काढ़िया, लेखै वार न पार।

जब लग साँस सरीर में, तब लग राम सँभार॥3॥


हरि जी यहै विचारिया, साखी कहै कबीर।

भौसागर मैं जीव हैं, जे कोइ पकड़ै तीर॥4॥


कबीर नौबति आपनी, दिन दस लेहु बजाइ।

ए पुर पद्दन ए गली, बहुरि न देखहु आइ॥5॥


मान बड़ाई ऊरमी, ये जग का व्यवहार।

दीन गरीबी बन्दगी, सतगुरु का उपकार॥6॥


कंलि खोटा जग अंधेरा, शब्द न माने कोय।

जो कहा न माने, दे धक्का दुई और॥7॥


इस घट अंतर बाग बगीचे, इसी में सिरजन हारा।

इस घट अंतर सात समुदर इसी में नौ लख तारा॥8॥


सत गहे, सतगुरु को चीन्हे, सतनाम विश्वासा।

कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा॥9॥


बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।

करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान॥10॥


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