कबीरदास के अनमोल दोहे - 23

मैं जाण्यूं पढ़िबो भलो, पढ़िबा थे भलो जोग।

राम-नाम सू प्रीती करि, भल भल नींयौ लोग ॥1॥


कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊं।

गले राम की जेवड़ी, जित खैवें तित जाऊं॥2॥


मेरे संगी दोई जण, एक वैष्णों एक राम।

वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम॥3॥


कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।

पाका कलस कुंभार का, बहूरि चढ़ी न चाकि॥4॥


पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय॥5॥


कबिरा खड़ा बजार में, लिये लुकाठी हाथ।

जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ॥6॥


सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे।

दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे॥7॥


दुखिया भूखा दुख कौं,सुखिया सुख कौं झूरि।

सदा अजंदी राम के, जिनि सुखदुख गेल्हे दूरि॥8॥


क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारिन कौ मान।

मांग संवारै पील कौ, या नित उठि सुमिरै राम॥9॥


जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।

कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥10॥


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