कबीरदास के अनमोल दोहे - 17

सातौ सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग।

ते मंदिर खाली पड़े, बैठन लागे काग॥1॥


राजपाट धन पायके, क्यों करता अभिमान।

पडोसी की जो दशा, सो अपनी जान॥2॥


ऊजल पाहिनै कपड़ा, पान सुपारी खाय।

कबीर गुरु भक्ति बिन, बांधा जमपूर जाय॥3॥


सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार।

लोचन अनन्त उघारिया, अनन्त दिखावनहार॥4॥


प्रीती बहुत संसार में, नाना विधि की सोय।

उत्तम प्रीती सो जानियो, सतगुरु से जो होय॥5॥


जो घट प्रेम न संचरे, सो घट जान सामान।

जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिनु प्रान॥6॥


उज्जवल बरन अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान।

देखत मैं तो साधु है, पर निपट पाप की खान॥7॥


जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि।

एकै हरि के नाँव बिन, गए जनम सब हारि॥8॥


इक दिन ऐसा होइगा, सब सौ परै बिछोह।

राजा राना छत्रपति, सावधान किन होइ ॥9॥


कबीर कहा गरबियो, इस जोवन की आस।

केसू फूले दिवस दोइ, खंखर भये पलास॥10॥


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