कबीरदास के अनमोल दोहे - 26

कबिरा मन पंछी भया, वैसे बाहिर जाय।

जो जैसी संगत करे, सो तैसा फल पाय॥1॥


मन बीना कछु और ही, तन साधुन के संग।

कह कबीर कारी करि, कैसे लागे रंग॥2॥


करता था तो क्यों रहा, अब कर क्यों पछताय।

बोय पेड़ बबूल के, आम कहाँ से पाय॥3॥


जहाँ दया वहाँ धरम है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।

जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा वहाँ आप॥4॥


जाता है तो जाण दे, देहि दशा न जाय।

खेवटिया की नाव जू, चढ़ी मिलेंगे आय॥5॥


मेरा मुझ में किछु नहीं, जो किछु है सो तोर।

तेरा तुझ को सौंपता, क्या लागे है मोर॥6॥


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलय कोय।

जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥7॥


ऊँचे कुल का जन्मया, करनी ऊँच न होय।

सुबरन कलष सूरा भरा, साधू निंदा होय॥8॥


कबहूँ अभिमान न कीजिय, कहे कबीर समुझाय।

जातिर अह्जू संचारे, पड़े चौरासी जाय॥9॥


जाके चित्त अनुराग है, ज्ञान मिले नर सोय।

बिन अनुराग न पावई कोटि करे जो कोय॥10॥


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