कबीरदास के अनमोल दोहे - 15

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।

कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥1॥


शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।

भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥2॥


ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।

भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस॥3॥


कहे कबीर दास फकीरा, अपनी राह चलि भाई।

हिंदू तुरुक का करता एकै, ता गति लखी न जाई॥4॥


सुरति समांणी निरति में, निरति रही निरधार।

सुरति निरति परचा भया, तब खुले स्वयं दुवार॥5॥


परब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।

कहिये कूँ साोभा नहीं, देख्या ही परमान॥6॥


आकासे मुखि औंधा कुआँ, पाताले पनिहारि ।

ताका जल कोई हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि ॥7॥


पंखि उड़ानी गगन कौं, पिण्ड रहा परदेस ।

पानी पीया चंचु बिनु, भूलि या यहु देस ॥8॥


सुरति समानी निरति मैं, अजपा माँहै जाप।

लेख समानां अलेख मैं, यौं आपा माँहै आप॥9॥


देखौ करम कबीर का, कछु पूरब जनम का लेख।

जाका महल न मुनि लहैं सो दोसत किया अलेख ॥10॥


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