कबीरदास के अनमोल दोहे - 13

कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥1॥


जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।

दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम॥2॥


सतनाम जाने बिना, हंस लोक नहिं जाए।

ज्ञानी पंडित सूरमा, कर कर मुये उपाय॥3॥


जो तोकूँ कॉटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।

तोकूँ फूल के फूल हैं, बाकूँ है तिरशूल॥4॥


साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥5॥


गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम।

कीट ना जाने भ्रूंग को, गुरु करिले आप समान॥6॥


दण्डवत गोविन्द गुरु, वन्दौं अब जन सोय।

पहिले भये प्रनाम तिन, नमो जु आगे होय॥7॥


भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय।

भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय॥8॥


यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज।

सांचै मारे झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज॥9॥


लेखा देणां सोहरा, जे दिल सांचा होइ।

उस चंगे दीवान में, पला न पकड़ै कोइ॥10॥


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