माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौदें मोहे।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोहे॥1॥
सुख के संगी स्वार्थी, दुःख में रहते दूर।
कह कबीर परमार्थी, दुःख सुख सदा हजूर॥2॥
शीलवन्त सब से बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन॥3॥
माया ताजे तो क्या भया, मान तजा नहीं जाय।
मान बढ़े मुनिवर गले, मान तो बन को खाय॥4॥
प्रेम भक्ति में रचि रहे, मोक्ष मुक्ति फल पाय।
शब्द माहिं जब मिलि रहे, नहीं आवे नहीं जाय॥5॥
कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानहिं, सो का पीर में पीर॥6॥
प्रेम भाव इक चाहिए, भेष अनेक बनाए।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाए॥7॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरी हैं मैं नाहि।
प्रेम गली अति सांकरी, तां में दुई न समाहि॥8॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा मांहि॥9॥
सुमिरन मन में लाईये, जैसे नाद कुरंग।
कहि कबीरा बिसरे नहीं, प्राण ताजे जेहि संग॥10॥