जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटात।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खात ॥1॥
ए रहीम, दर-दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं।
यारो यारी छाँड़िदो, वे रहीम अब नाहिं ॥2॥
देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥3॥
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा परत है, सो आवत यहि देस॥4॥
होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम अति दूर।
बाढेहु सो बिनु काजही, जैसे तार खजूर॥5॥
संतत संपति जान के, सब को सब कछु देत।
दीनबंधु बिनु दीन की, को ‘रहीम’ सुधि लेत॥6॥
संपति भरम गँवाइके, हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं॥7॥
ससि संकोच, साहस, सलिल, मान, सनेह रहीम।
बढ़त-बढ़त बढ़ि जात है, घटत-घटत घटि सोम ॥8॥
सर सूखे पंछी उड़े, और सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहँ जाहिं॥9॥
रहिमन लाख भली करो, अगुनी न जाय।
राग, सुनत पय पिअतहू, साँप सहज धरि खाय॥10॥