रहीमदास के अनमोल दोहे - 4

रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना था। संवत 1556 में लाहौर में जन्मे रहीम का नामकरण सम्राट अकबर ने किया था।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।

टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय॥1॥


रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत।

काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत॥2॥


रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।

जहाँ काम आवै सूई, कहा करै तलवारि॥3॥


रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।

सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय॥4॥


रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।

रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार ॥5॥


रहिमन पैड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।

बिलछत पांव पिपीलिको, लोग लदावत बैल ॥6॥


रहिमन वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।

हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥7॥


जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।

गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं॥8॥


जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।

चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग ॥9॥


वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।

बाँटन वारे को लगे, ज्यो मेहंदी को रंग॥10॥


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