रहीमदास के अनमोल दोहे - 12

रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना था। संवत 1556 में लाहौर में जन्मे रहीम का नामकरण सम्राट अकबर ने किया था।

स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि ।

बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ पथ कूबर छांहि ॥1॥


सीत हरत तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक।

रहिमन तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक॥2॥


सदा नगारा कूच का, बाजत आठौं जाम।

रहिमन या जग आइकै, को करि रहा मुकाम॥3॥


सौदा करौ सो कहि चलो, ‘रहिमन’ याही घाट।

फिर सौदा पैहो नहीं, दूरि जात है बाट॥4॥


तै ‘रहीम’ अब कौन है, एतो खैंचत बाय।

जस कागद को पूतरा, नमी माहिं घुल जाय॥5॥


रहिमन वित्‍त अधर्म को, जरत न लागै बार।

चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार॥6॥


रहिमन तब लगि ठहरिए, दान, मान, सनमान।

घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान॥7॥


‘रहिमन’ रहिबो वह भलो, जौं लौं सील समुच।

सील ढील जब देखिए, तुरंत कीजिए कूच ॥8॥


एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।

‘रहिमन’ मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय॥9॥


करत निपुनई गुन बिना, ‘रहिमन’ निपुन हजूर।

मानहुं टेरत बिटप चढि, मोहि समान को कूर॥10॥


रहीमदास » मुख्यपृष्ठ » अन्य पृष्ठ: [1]    [2]    [3]    [4]    [5]    [6]    [7]    [8]    [9]    [10]    [11]    [12]    [13]    [14]