रहिमन मोहिं न सुहाय, अमी पआवै मान बनु ।
बरु वष देय बुलाय, मान-सहत मरबो भलो ॥1॥
सबै कहावैं लसकरी, सब लसकर कहं जाय ।
‘रहिमन’ सेल्ह जोई सहै, सोई जगीरे खाय ॥2॥
रूप कथा, पद, चारुपट, कंचन, दोहा, लाल।
ज्यों-ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम बिसाल॥3॥
बरु रहीम कानन भलो, वास करिय फल भोग।
बंधु मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग॥4॥
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन-साथ ।
जो रहीम भावी कतहुँ, होत आपने हाथ ॥5॥
रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम जस दान।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूँछ-विषान॥6॥
रहिमन बहु भेषज करत, व्याधि न छाँड़त साथ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ॥7॥
रहिमन निज मन की बिथा, मनही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब , बाँटि न लैहैं कोय॥8॥
रहिमन निज सम्पति बिना, कोउ न विपति-सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय॥9॥
रहिमन जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाव।
जो बासर को निसि कहै, तौ कचपची दिखाव॥10॥