रहिमन कहत स्वपेट सों, क्यों न भयो तू पीठ।
रीते अनरीतैं करैं, भरै बिगारैं दीठ॥1॥
यह न रहीम सराहिए, लेन देन की प्रीति।
प्रानन बाजी राखिए, हार होय कै जीति॥2॥
रजपूती चांवर भरी, जो कदाच घटि जाय।
कै रहीम मरिबो भलो, कै स्वदेस तजि जाय॥3॥
हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर।
जग डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर॥4॥
उत्तम जाती ब्राह्ममी, देखत चित्त लुभाय।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय॥5॥
परजापति परमेशवरी, गंगा रूप समान।
जाके अंग तरंग में, करत नैन अस्नान॥6॥
जोगनि जोग न जानई, परै प्रेम रस माहिं।
डोलत मुख ऊपर लिए, प्रेम जटा की छांहि॥7॥
सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं॥8॥
पिय वियोग ते दुसह दुख, सुने दुख ते अन्त।
होत अन्त ते फल मिलन, तोरि सिधाए कन्त ॥9॥