ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरै पै कारौ लगै ॥1॥
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
‘रहिमन’ मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥2॥
कहीं रहीम पशु, दुग सो कहीं दिवान।
देखि दृगन जो आदरै, मन तेही हाथ बिकान॥3॥
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोड़े आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिट कूदि चढि जाहिं॥4॥
यह रहीम मानै नहीं, दिल से नवा जो होय।
चीता चोर कमान के, नए ते अवगुन होय॥5॥
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय॥6॥
रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देई।
छेद में डंडा डारि कै, चहै नांद लै लेई॥7॥
महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष।
सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष॥8॥
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
रहिमन जगत-उधार को, और ना कोऊ उपाय॥9॥
दौनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहीं।
जान परत है काक पिक, ऋतु बसंत के माहिं॥10॥