बिहारीलाल के अनमोल दोहे - 5

कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।

जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ॥1॥


बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन तन माँह।

देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥2॥


जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।

कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात॥3॥


तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।

तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान॥4॥


कहा कहूँ बाकी दसा,हरि प्राननु के ईस।

विरह-ज्वाल जरिबो लखै,मरिबौ भई असीस॥5॥


मैं समुझयौ निरधार, यह जगु काँचो कांच सौ।

एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ॥6॥


घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।

दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाइ॥7॥


कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।

मो संपति जदुपति सदा,विपत्ति-बिदारनहार॥8॥


पत्रा ही तिथि पाइये,वा घर के चहुँ पास।

नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास॥9॥


या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।

ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ॥10॥


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