घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि॥1॥
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल॥2॥
कीनैं हुँ कोटिक जतन, अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि, पानी मैं कौ लौनु॥3॥
फूलनके सिर सेहरा, फाग रंग रँगे बेस।
भाँवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस॥4॥
सतसइया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करैं गम्भीर॥5॥
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥6॥
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥7॥
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल॥8॥
कहत सबै, बेंदी दिये, ऑंक हस गुनो होत।
तिय लिलार बेंदी दिये, अगनित होत उदोत॥9॥
दुसह दुराज प्रजानि को, क्यों न बढ़े नित दन्दु।
अधिक अंधेरो जग करै, मिलि मावस रवि चंदु॥10॥