करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि॥1॥
मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव॥2॥
इन दुखिया अँखियानु, कौ सुख सिरज्यौई नाहिं।
देखै बनै न देखतै, अनदेखै अकुलाहिं॥3॥
चटक न छाँड़तु घटत हूँ, सज्जन नेह गंभीरु।
फीको फरै न वरू फटे, रंग्यौ चोल रग चीरू॥4॥
इति आवत चली जात उत, चली छःसातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ॥5॥
औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात॥6॥
दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति॥7॥
लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥8॥
गिरि तैं ऊंचे रसिक-मन बूढे जहां हजारु।
बहे सदा पसु नरनु कौ प्रेम-पयोधि पगारु॥9॥
स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि॥10॥