बिहारीलाल के अनमोल दोहे - 2

अजौ तरौना ही रह्यो, सुति सेवत इक अंग ।

नाक बास बेसर लहयो, बसि मुकुतन के संग॥1॥


कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।

भरे भौन में करत हैं, नैननु ही सों बात॥2॥


बहकि न इहिं बहिनापुली, जब तक बार विनास।

बचै न बड़ी सबील हूँ, चील घोंसला मांस॥3॥


दूर भजत प्रभु पीठि दै, गुन-विस्तारन काल।

प्रगटत निर्गुन निकट रहि, चंग रंग भूपाल॥4॥


ब्रज भाषा बरनी सबै, कविवर बुद्धि विशाल।

सब की भूषण सतसर्इ, रची बिहारी लाल॥5॥


बसे बुराई जासु तन, ताहि को सनमान।

भलौ-भलौ कहि छोड़िये, खोटे ग्रह जप दान॥6॥


ओठु उचै हाँसी भरी दृग भौंहन की चाल।

मो मनु कहा न पी लियै पियत तमाकू लाल॥7॥


भाँवरि अनभाँवरि भरे करौ कोरि बकवादु।

अपनी-अपनी भाँति कौ छुटै न सहजु सवादु॥8॥


कनकु कनक तैं सौगुनौ मादकता अधिकाइ।

उहिं खाएँ बौराइ इहिं पाऐं हीं बौराइ॥9॥


अरे हंस या नगर मैं, जैयो आपु बिचारि।

कागनि सौं जिन प्रीति करि, कोकिल दई बिड़ारि॥10॥


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