सज्जन-बचन, दुर्जन-बचन अन्तर बहुत लखाय।
वे सबको नीके लगैं, वे काहू न सुहाय॥1॥
होत सुसंगति सहज सुख, दुख कुसंग के थान।
गंधी और लुहार की देखी बैठि दुकान॥2॥
धन सैच्यों किहिं काम कौ, खाड़ खरच हरि प्रीति।
बँध्यौ गंधीलौ कूप जल, कढ़ै बढै इति रीति॥3॥
काहू सों नाही मिटै, अपरापव के अंक।
बसत र्इस के सीस तउ, भयो न पूर्न मयंक॥4॥
जासों निबहै जीविका, करिए सो अभ्यास।
वेस्या पाले सील तो, कैसे पूरे आस॥5॥
देत ने प्रभु कुछ बिन दिए, दिए देत यह बात।
तै तन्दुल धन दुजहिं मुनि तृपत कियो भखिपात॥6॥
छलबल समै विचारि के अरि हनिये अनयास।
कियौ अकेले द्रोण-सुत निसि पाण्डव कुल नास॥7॥
जाकौ बुद्धि बल होत है, ताहि न रिपु को त्राास।
ताकौं अरि का करि सकै, जाकौ जतन उपाय॥8॥
निबल जानि कीजै नहीं, कबहूँ बैर विवाद।
जीत कछु सोभा नहीं, हरि निन्दा-वाद॥9॥
जा मैं हित सो कीजिए, कोउ कहौ हजार।
छल बल साधि बिजै करी, पारय भारत बार॥10॥