वृंददास के अनमोल दोहे - 2

विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन।

बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन॥1॥


अति हठ मत कर, हठ बढ़ै, बात न करिहै कोय।

ज्यौं- ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं - त्यौं भारी होय॥2॥


समै सार दोहानि कौं सुनत होय मन मोद।

प्रगत भर्इ यह सतसर्इ भाषा वृन्द विनोद॥3॥


जोरावर कौं होति है, सब के सिर पर राह।

हरि रुक्मनि हरि ले गयौ, देखत रहे सिपाह॥4॥


होत अधिक गुन निबल पै उपजत बैर निदान।

मृग मृगमद चमरी चमर लेत दुष्ट हत प्रान॥5॥


भूपति के संग सुभट गन आपस में यह रीति।

बन अभीत ज्यो सिंह तें बन तैं सिंह अभीत॥6॥


हरत दैबहु निबल अरु दुरबल ही के प्रान।

बाध सिंह को छांडि कै देत छाग बलिदान॥7॥


जकौ बुद्धिबल होत है, ताहि न रिपु कौ त्राास।।

घन बूदै कह करि सकै, सिर पर छतना जांसु॥8॥


विधा गुरु की भकित सों, कै कोहे अभ्यास।

सील द्रोण के बिन कहे, सीखयों बानविलास॥9॥


सबही कुल में होत है, एक एक सरहार।

गज ऐराबत सुर सुरिन्द तरुवर में मंदार॥10॥


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