रसखान के अनमोल दोहे - 1

कहा करै रसखानि को, को चुगुल लबार।

जो पै राखनहार हे, माखन-चाखनहार॥1॥


सरस नेह लवलीन नव, द्वै सुजानि रसखानि।

ताके आस बिसास सों पगे प्रान रसखानि॥2॥


विमल सरल सरखानि, भई सकल रसखानि।

सोई नब रसखानि कों, चित चातक रसखानि॥3॥


प्रेम-अयनि श्रीराधिका, प्रेम-बरन नँदनंद।

प्रेमवाटिका के दोऊ, माली मालिन द्वंद्व॥4॥


कमलतंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।

अति सूधो टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥5॥


सास्त्रन पढि पंडित भये, के मौलवी कुरान। ।

जू पै प्रेम जान्यो नहीं, कहा कियो रसखान॥6॥


बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।

सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥7॥


अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।

प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥8॥


प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।

या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥9॥


काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य।

इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥10॥


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